भारत में कोयले की खपत लगभग हो गई है दोगुनी,अब अर्थव्यवस्था के लिए कोयला बनी मजबूरी
पर्यावरण से जुड़े थिंक टैंक. सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने हाल ही में एक रिपोर्ट जारी की है जिसमें बताया गया है कि दिल्ली-एनसीआर में थर्मल पावर प्लांट द्वारा स्टैंडर्ड मानकों का पालन नहीं करने से राजधानी दिल्ली में वायु प्रदूषण बढ़ रहा है. इसी रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में चल रही इंसानी गतिविधियां न सिर्फ बढ़ते प्रदूषण का कारण बन रही हैं बल्कि क्षेत्रीय पर्यावरण में बदलावों के लिए भी ये सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं.जलवायु परिवर्तन और बढ़ते प्रदूषण के लिए जिम्मेदार इंसानी गतिविधियों में से एक प्रमुख गतिविधि है जीवाश्म ईंधन की खपत और उसमें कोयले को सबसे गंदा ईंधन माना जाता है.दरअसल कोयला जलाने से बहुत ही उच्च स्तर पर कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है. कार्बन डाइऑक्साइड वो ग्रीनहाउस गैस है जो वायुमंडल की गर्मी को रोक कर ग्लोबल वार्मिंग का कारण बनती है और ऐसे ही हालात दुनिया को जलवायु परिवर्तन की तरफ ले जा रहे हैं।
खास बात ये है सबसे ज्यादा कार्बन-सघन जीवाश्म ईंधन उत्पन्न करने के बाद भी दुनिया भर में बिजली उत्पादन के लिए कोयले का जमकर इस्तेमाल किया जाता है. वैश्विक स्तर पर बिजली उत्पादन में कोयला एक-तिहाई से ज्यादा की आपूर्ति करता है. भारत दुनिया का तीसरा ऐसा सबसे बड़ा देश है जो बड़े पैमाने पर कोयले का इस्तेमाल करता है और जीवाश्म ईंधनों को निकालता है. अब जब जीवाश्म ईंधन पर्यावरण पर असर डालने लगे हैं तो दुनिया के सभी बड़े देश मांग कर रहे हैं कि कोयले का खनन कम किया जाना चाहिए. ऐसे में इस रिपोर्ट में जानते हैं कि भारत जैसे तेजी से विकास कर रहे देश के लिए कोयले की खपत कम कर पाना कितना मुश्किल है, कोयला भारत की अर्थव्यवस्था के लिए कितना जरूरी है? भारत का ज्यादातर कोयला भंडार कोयला बेल्ट कहे जाने वाले छत्तीसगढ़, झारखंड, और ओडिशा राज्यों में है. साल 2021 में ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूट ने एक रिपोर्ट जारी की थी, इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में कोयला उद्योग से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से 40 लाख लोग जुड़े हुए हैं. इसी उद्योग से उन्हें रोजगार भी मिलता है. इन तीनों ही राज्यों और इनके आसपास वाले इलाकों में कोयला उद्योग ही अर्थव्यवस्था का आधार है. कोयला उद्योग ही यहां के स्थानीय समुदायों की लाइफलाइन भी है. कोयला मजदूरों के हितों को उठाने वाले यूनियन के नेता सुदर्शन मोहंती ने एबीपी से बातचीत में कहा कि, “हमारे देश के लोगों का कोयले के बिना जिंदा रहना नामुमकिन लगता है. उन्होंने कहा कि हमारा देश कोयले से स्वच्छ ऊर्जा संसाधनों की तरफ जाने की कोशिश कर रहा है तो पहले एक साफ रणनीति होनी चाहिए ताकि उन लोगों को पीछे न छोड़ा जा सके जो कोयले पर निर्भर है और इससे ही उनका रोजगार भी चल रहा है. उन्होंने आगे कहा कि भारत में दशकों से कोयले खदानों का रास्ता साफ करने के लिए कई लोगों को अपना घर परिवार छोड़ना पड़ा है. अगर सरकार इस कोयले को खदान हटा देती है दी तो फिर उन लोगों पर एक बार फिर आजीविका संकट आ जाएगा.भारत में पिछले एक दशक में कोयले की खपत लगभग दोगुनी हो गई है. भारत वर्तमान में अच्छी गुणवत्ता का कोयला आयात कर रहा है और इस देश की योजना आने वाले कुछ सालों में कई दर्जन नए खदान खोलने का भी है.ऐसा नहीं है कि भारत स्वच्छ ऊर्जा की ओर नहीं जा रहा है. भारत ने साल 2030 तक गैर-जीवाश्म ईंधन से 40% तक बिजली बनाने का लक्ष्य भी निर्धारित किया है. हालांकि साल 2022 में भारत की प्राथमिक ऊर्जा खपत का केवल 10.4% नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से है. वहीं इसी साल कोयला और तेल-गैस की हिस्सेदारी क्रमशः 55.1% और 33.3% रही है. वित्त वर्ष 2022-2023 के दौरान भारत में कोयले के इस्तेमाल से चलने वाले थर्मल पावर प्लांट (TPP) ने 74.3% बिजली का उत्पादन किया और आने वाले समय में इस मांग को पूरा करने के लिये थर्मल पावर प्लांट उत्पादन लगातार बढ़ाया भी जा रहा है. ज्यादा कोयला खदान वाले देशों की तुलना में भारतीय कोयले में फ्लाई ऐश का स्तर ज्यादा होता है. फ्लाई ऐश एक तरह का बारीक पाउडर होता है थर्मल पावर प्लांट में कोयले के जलने से उत्पादन के रूप में प्राप्त होता है. इस ऐश में भारी धातु के साथ पीएम 2.5 और ब्लैक कार्बन भी होते हैं. इसमें पाया जाने वाला पीएम 2.5 गर्मी के मौसम में उड़ते उड़ते 20 किमी तक भी फैल सकता है और पानी के सतह पर भी जम सकता है. बिना धुले कच्चे कोयले को 500 किमी. से ज्यादा दूर स्थित पावर प्लांट तक ले जाने से ट्रांसपोर्टेशन सिस्टम बाधित होती है और इसके परिणामस्वरूप कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन और पर्यावरण प्रदूषण भी बढ़ता है.क्लाइमेट असेसमेंट रिपोर्ट के अनुसार हर बीतते साल के सात ही भारत में सूखा, बारिश और चक्रवातीय तूफानों जैसी प्राकृतिक आपदाएं ज़्यादा गंभीर रूप से आने लगी हैं.रिपोर्ट के अनुसार अगर कार्बन उत्सर्जन की स्थिति ऐसी ही रही तो आने वाले समय में भारत का औसत तापमान चार डिग्री से ज़्यादा और गर्म हवाओं का जोखिम तीन से चार गुणा बढ़ जाएगा. एक दशक के अंदर भारत में दो बार से ज़्यादा भीषण सूखा भी पड़ सकता है.इसी रिपोर्ट में अनुमान लगाया है कि आने वाले दशकों में भारत की जलवायु में जो तुरंत बदलाव होने लगेंगे. अगर ऐसा होता है तो देश की नेचुरल इकोसिस्टम (प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र), कृषि उपज और प्राकृतिक जल संसाधनों पर दबाव बढ़ता चला जाएगा. क्लाइमेट चेंज का देश की जैव विविधता, भोजन, पानी, ऊर्जा सुरक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर भी गंभीर प्रभाव पड़ सकता है.जलवायु रिपोर्ट के अनुसार भारत में साल 1951 से लेकर 2015 के बीच गर्मियों में होने वाली मानसून की बारिश में लगभग छह फीसदी की गिरावट आई है. इसी रिपोर्ट के मुताबिक साल 1901 से लेकर साल 2018 के बीच भारत के औसत तापमान 0.7 डिग्री सेल्सियस की बढ़त हुई है.इन सालों में गर्म हवाओं का समय भी बढ़ा है. पहले जितनी देर तक गर्म हवाएं चला करती थीं, अब ये हवाएं उससे दो गुने समय तक चलती है. वहीं साल 1951 से लेकर 2016 के बीच सूखा पड़ने की घटनाएं बढ़ी है. इसके अलावा सूखे से प्रभावित होने वाले इलाकों का दायरा भी बढ़ता नजर आया है. इसके अलावा पिछले 20 सालों में मानसून के बाद आने वाले भीषण चक्रवातीय तूफान की घटनाएं अब बार-बार हो रही हैं।